शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

श्रीकृष्ण की अंतर्वेदना

श्रीकृष्ण की अन्तर्वेदना महाभारत [ के शान्तिपर्व के अध्याय ८१] में व्यक्त हुई है , नारद आते हैं तो वासुदेव का मन खुल जाता है । वे कहते हैं > नारद , गुप्त मन्त्रणा केवल विद्वान से ही नहीं की जा सकती , न केवल सुहृद से ही की जा सकती है , गुप्त मन्त्रणा के लिये इन दोनों योग्यताओं के साथ मनस्वी होना भी जरूरी है , आप में ये तीनों ही विशेषता हैं ,इसलिये आप से कह रहा हूं । मेरे परिवार में शान्ति नहीं है । हालांकि मुझे जो उपभोग्य-साधन मिल जाते हैं , उनका आधा हिस्सा मैं कुटुंब को छोड देता हूं और आधे से ही काम चलाता हूं ,फिर भी ये कुटुंबी- जन मन में कटुता रखे हुए रहते हैं और कटु-वाक्य बोल भी देते हैं ।मैं अन्दर ही अन्दर जलता रहता हूं । बलराम अपने बल के गरूर में डूबे रहते हैं , छोटा वाला > गद है, वह परिश्रम से भागता है, प्रद्युम्न बेटा है , मुझे सहायता कर सकता है किन्तु वह अपने सौन्दर्य में मतवाला रहता है । अंधक और वृष्णि-वंश में दुर्धर्ष वीर हैं किन्तु आहुक और अक्रूर ने वैमनस्यभाव पैदा कर दिया है ।दो जुआरी बेटों की मां जैसी मेरी स्थिति है कि वह मां कौनसे बेटे की जीत चाहेगी ? मैं तो दोनों में से किसी की भी पराजय नहीं चाहता। 
 मैं किसकी ओर रहूं ,जिसकी बात को सही न कहूं , वही मुझे शत्रु समझने लगता है ।नारद , मैं मन ही मन व्यथित रहता हूं. मैं क्या करू? श्रीकृष्ण भगवन की इस अंतर्वेदना का कारण आज के संसार के हालत को देख कर समझा जा सकता है। आज के भौतिकतावादी और बाज़ारवाद का शिकार उपभोक्ता विभिन्न उपक्रमों के माध्यम से जो संसाधन अपने परिवार के लिए जोड़ता है उसकी परनिटी हम समाज में बढ़ते विग्रह और हिंषा के रूप में खुली आँख देख रहे है। पूंजी और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन का आधिक्य परिवार में श्री कृष्ण के कुटुंब में पनपे आलस्य ,विग्रह ,परस्पर द्वेष और अशांति के रूप आज भी  सामने जीवंत है। क्या यही आज का सच नहीं है ? श्रीकृष्ण  हम भक्त जन क्या उनके द्वारा व्यक्त वेदना से सबक लेते हुए कोई मार्ग तलाशेंगे ?