गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

महात्मा गांधी : विलक्षण और विराट व्यक्तित्व।

(मेरा यह लेख 15 वर्ष पूर्व 7 अक्टूबर 1999 को प्रकाशित हुआ था। आज फिर कुछ सन्दर्भ उठ खड़े हैं उस परिपेक्ष में इस लेख को सुधि साथियों के बीच चर्चा और मनन के लिए पुनः लिपिबद्ध कर प्रस्तुत कर रहा हूँ। विश्वास है तब जब गांधी ने परतंत्रता की बेड़ियां तोड़ने को विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी , अब देश का जन मानस सार्वजानिक जीवन , लोक मन और मस्तिष्क में जो मलिनता घर कर गई है उसकी होली जला नव ऊर्जा का संचार पायेगा - सुरेन्द्र आर्य " जनमेजय " )

क विराट व्यक्तित्व। प्रकृति की एक अनूठी अभिव्यक्ति मोहनदास करम चंद गांधी जिसने युग इतिहास को एक दुसाध्य करवट दी और कोटि-कोटि जनो का भाग्य ही बदल डाला। वह महामानव जिसने ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ठ रचना व्यक्ति को नयी परिभाषा दी। उसमें छिपी असीम शक्ति का दर्शन कराया। व्यक्ति कितना भी अकेला क्यों न हो, कितना भी अभावग्रस्त हो, निर्बल हो, जब स्व की शक्ति की अनुभूति कर जागृत होता है तो युग बदल सकता है, इसका एहसास कराया। 
फिराज गांधी, इन्दिरा नेहरू गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, वरूण गांधी, मेनका गांधी, प्रियंका बडेरा गांधी, अनिल गांधी, सुनीला गांधी, ललित गांधी या फिर कोई और गांधी हो जाना महज एक इत्तफाक है किन्तु मोहनदास करम चंद गांधी का महात्मा गांधी होना युग की अविष्मरणीय युगांतकारी अद्वितीय घटना है। गांधी पहले भी हुए आगे भी होंगे। वे शासक हो सकते हैं, जनप्रतिनिधि हो सकते हैं, किनतु विराट सृष्टि की अंतः गहराइयों को समग्रता से जानने, समझने और जीवन में उतार कर अभिव्यक्ति कर देने वाले नहीं हो सकते। 
महात्मा गांधी सार्वजनिक जीवन की शुचिता के प्रतिमान हैं, आदर्श हैं। सूर्य के प्रकाश में जो पदार्थ जैसा दिखता है वह गहनतम अंधकार में भी वैसा ही रहता है। गांधी वही हैं, वह निज जीवन में जैसा है सार्वजनिक जीवन में भी वहीं है, कर्म में, व्यवहार में, वाणी में कहीं कोई भेद नहीं। वह आज का छली गांधी नहीं है। वह शासक न होकर भी, वह जनप्रतिनिधि न चुने जाकर भी विश्व लोकसत्ता, विचार सत्ता, कर्मसत्ता की शक्ति के वाहक बने, प्रतिनिधि बनें। 
मोहनदास करम चंद गांधी की देह से महात्मा को जबरी विलग कर देने का दुष्कर्म जिन्होंने किया वे तो घृणा, निन्दा, अपमान तिरस्कार और सजा के पात्र हैं ही, किनतु वे जो उस विराट महामानव की निष्काम कर्मवाणी व्यवहार के आदर्शों की थाती के घोषित वारिस थे और हैं, नित उसकी हत्या कर रहे हैं, उनके साथ क्या सलूक किया जाय? 30 जनवरी 1948 को कुछ मतांध सिरफिरों ने तो एक बार ही उनकी देह की हत्या की किन्तु जो गांधी आज भी मारा जा रहा है, तिरस्कृत किया जा रहा है। भौंडे रूपों में व्याख्यायित किया जा रहा है उसका क्या करें?
सार्वजनिक जीवन कितना शुचिता पूर्ण पुण्यय, अमृतमय और लोगों को उनके दुःखों से मुक्ति का मार्ग दिखाने वाला हो यह कोई गांधी से क्यों नहीं सीखना चाहता? क्यों लोग निजी जीवन और सार्वजनिक जीवन को दो अलग-अलग खानों में रखकर जीना चाहते हैं? वे कौन सी तृष्णायें हैं जो हमारे आज के सार्वजनिक जीवन के नायकों को दाहरा चरित्र ओढकर स्वार्थमय नापाक जीवन जीने को विवश करती हैं। यह सोचने का विषय है। यह तृष्णायें गांधी को क्यों प्रभावित नहीं कर पाई? गांधी इन पर कैसे विजय पा गये? यह शोध का विषय है।
जैन धर्म के ढाई हजार साला इतिहास में अहिंसा पर बहुत कुछ कहा गया। अनेक मुनियों ने इस पर अमल के अनेक मार्ग भी सुझाये किन्तु क्यों एक भी गांधी जैन धर्म के मतावलम्बियों के बीच से पैदा नहीं हो सका? जिसने अहिंसा को सिर्फ समझा ही नहीं उसको अपने जीवन के प्रत्येक कर्म में उतार कर उसका व्यवहारिक उपयोग कर दिखाया। गांधी विचार, कर्म और वाणी से अहिंसा के प्रतिपादक थे। क्येांकि लोकतंत्र के हमारे झण्डावरदार लोकतंत्र के दीघ्र जीवन के इस मूल मंत्र को आत्मसात करते? हिंसा सिर्फ भौतिक ही नहीं होती वह वैचारिक भी है और वाणी के द्वारा भी होती है। इन तीनों प्रकार की हिंसा से लोकतंत्र की आयु और स्वास्थ्य कमजोर होता जाता है। आज जो कुछ राष्ट्रीय राजनीति पटल पर घट रहाह ै वह कोरी हिंसा है। गांधी की हत्या है। 
स्वस्थ लोकतंत्र और शुचितापूर्ण साव्रजनिक जीवन राष्ट्र के स्वावलम्बन, विकास, समृद्धि और सुखशांति की गारंटी है। जब गांधी के इन दो मूल मंत्रों पर हम हमला करेंगे तो निश्चय ही हम लोकतंत्र और राष्ट्रीय अखण्डता पर हमला कर रहे होंगे।यानि एक और गांधी की हत्या। 
आइए, गांधी की प्रासंगिकता पर एक बार फिर विचार करें। उनको सम्पूर्णता में न सही किसी एक रूप मंे अपने जीवन में उतारें। गांधी को नारों से नहीं अपने कर्म से आत्मसात कर अमर करें। गांधी रहेगा तो देश रहेगा। उसकी पहचान और शक्ति बनी रहेगी। लोकसत्ता सच्चे मायनों में जीवित रहकर स्थापित होगीं निर्बल और दलित भारत, पीडित और उपेक्षित भारत, प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर निर्धन भारत मानवीय अधिकारों, धर्मों और जीवन शैली का उपदेशक होकर भी विलोम में जी रहा भारत अपने उत्कर्ष को प्राप्त कर सकेगा। गांधी का ‘ग’ प्रर्याय और गमन यानि चलते रहने, ग यानि गवाक्ष (आंखें) ग यानि वाणी (जिव्ह्म) और धी श्रेष्ठ बुद्धि अर्थात हम श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त वाणी और चक्षु के साथ निरंतर उत्कर्ष के लिए चलते रहें, बढ़ते रहें तभी गांधी का हमारा होना सार्थक होगा। 

:- सुरेन्द्र सिंह आर्य " जनमेजय "

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

स्मार्ट शहर देहरादून के हम लोग


भी देहरादून शहर के हम लोग " साक्षर दून सुन्दर दून " का निवासी होने पर गौरान्वित होते रहे हैं। तब आस -पास के लोग रहन -सहन में ,ज्ञान विज्ञानं में ,शिक्षा -दीक्षा में दोयम थे। फिर हमने विकास के नाम पर उपभोक्ता हो चलने के बाद हम " स्मार्ट " हो गए पर गंदगी चारो और फैलती चली गयी। तब हमने इस बात का जोरो से उद्घोष किया कि "स्वच्छ दून सुन्दर दून ". पर हम बना नहीं पाए। दुनिया विद्वत्ता हासिल कर बहुत आगे निकल गयी पर हम साक्षर ही बन पाए। दुनिया ने " ई - स्मार्ट सीटी " बसा दिए -बना लिए पर हम " दून को स्वच्छ और सुन्दर " नहीं बना पाए।
1977 में जनता पार्टी के टिकट पर शहर से विधायक बने स्व० देवेन्द्र शाश्त्री ने बदहाल देहरादून शहर को देख इसे स्विट्ज़रलैंड बनाने का सपना हमे दिखाया। हम सालो -साल उस खुमारी में जीते रहे और आगे के दशको तक घंटा घर चौक पर सीवर का पानी बहता रहा ,हर बरसात चौक के चारो और पानी भरता रहा। घंटा घर से दो किमी के दायरे में फैली गंदगी हमे अपने ख़्वाबों के स्विट्ज़रलैंड में होने का एहसास कराती रही।
फिर सरकार ने कहा कि जवाहरलाल शहरी नवीनीकरण योजना के तहत दून का होगा सौन्द्र्यकरण। चौराहे होंगे चोडे ,सड़के होंगी चौड़ी और सुदृढ़ ,सुन्दर पथ प्रकाशयुक्त होंगे। गंदगी का न होगा नामो निशा। समय बिताता रहा हम खुशफहमी में जीते रहे न खुद बदले न शहर बदला और न बदला सेवको का मिजाज़।
आज हम दून के " अल्ट्रा स्मार्ट " नागरिक होने पर गौरान्वित हैं। सरकार ने दून को " ई -स्मार्ट सीटी " बनाने की घोषणा की है। हम सभी बहुत ही खुश हैं। हमे अपना चरित्र और जीवन शैली बदले बिना एक आधुनिक और स्वच्छ और सुन्दर शहर के नागरिक होने का गौरव प्राप्त होगा। पर इससे भी ज्यादा हम इस बात पर खुश हैं कि स्मार्ट सीटी बनाने और उसका रखरखाव करने वाले सेवको के तौर तरीकों के बिना बदले हम इस काम को अंजाम देने में सक्षम हैं। -----आखिर हम " स्मार्ट दून " के " अल्ट्रा स्मार्ट निवासी " जो ठहरे। धन्यभाग हमारे और सौभाग्य योजना कारो का।

शुक्रवार, 9 मई 2014

जात न पूछो साधु की ,सब कुछ पूछो नेता की :


जाने किस संत के मुख से निकला होगा कि सज्जन ,विद्वान ,गृहस्थ त्यागी और परोपकारी साधु की जात न पूछो। राजनीती में अनेक लोग साधु तो हैं किन्तु राजनेता साधु नहीं होता। वह आनेक प्रलोभन और आश्वासन दे आपके ' वोट ' से शासक बनता है। उसे वोट चाहिए तो जात तो बतानी ही पड़ेगी। जात ही क्यों उसे तो अपनी बोली भाषा ,क्षेत्र, धर्म और नस्ल भी जनता को बतानी होगी। नहीं तो मुझ जैसे मूढ़मति वोट उसे क्यों देंगे ?
भारत का भविष्य प्रियंका के श्रीमुख से ' नीच ' राजनीती शब्द क्या निकले ,पूरे समाज में हर किसी की जाति को ले कोहराम मचा है। कौन नीच ,कौन ओबीसी ,कौन स्वर्ण ,कौन अवर्ण ,कौन कहाँ से आया ,कौन क्या था -क्या हो गया ,कौन किस नस्ल का है ,अब ,यह बताना जरुरी हो गया। वैसे तो हर भारतीय के नाम पर लगी पूंछ उसकी जात और नस्ल ढोल पीट कर घोषित होती है फिर भी कुछ शब्दों में जो भरम पैदा करते हैं खुलासा जरुरी है। राहुल, गांधी कैसे हो गए ,मोदी ओबीसी क्योंकर हुए ,माया दलित ,जया और ममता सवर्ण। ऐसा है क्यों मान लूँ मैं ?प्रमाण देने होंगे इन्हे ,तभी तो न वोट मिलेंगे और लोकतंत्र जीवित रहेगा और इनमे से कोई मेरा राजा हो सकेगा। 

उत्तराखंड में मतदान से पूर्व जिला निर्वाचन अधिकारी ने एसएमएस के जरिये सभी मतदाताओं से धर्म ,जाति ,क्षेत्र ,भाषा तथा प्रलोभन और दबाव से मुक्त भयमुक्त हो वोट डालने की अपील की थी। क्यों की थी ?जानते वो भी हैं कि भारतीय समाज में बिना इस हथकंडे को अपनाये वोट नहीं मिलते। चारो ओर से मिल रही खबरे तो यही बतरही हैं कि सभी ने धर्म ,जाति और क्षेत्र के हिसाब से एकजुट हो वोटिंग की है। कमोबेश यही परिदृश्य पूरे देश में हुए मतदान का है तब इस तरह की अपीलों का औचित्य ही क्या है ? 
एक अच्छे स्तंभकार पत्रकार ने जो सिख हैं ने एक बार एक लेख में लिखा था कि हिंदुस्तान में आप अपनी मेहनत ,योग्यता ,दक्षता ,हुनर से अपने जीवन का सब कुछ बदल सकते हैं किन्तु अपनी 'जात' नहीं बदल सकते। जात ही क्यों यहां तो विवेकशील हो आप अपना धार्मिक विश्वास भी नहीं बदल सकते। तो बेहतर है हर किसी को अपनी जात ,नस्ल ,धर्म ,भाषा और क्षेत्र से प्रतिबद्धताएं घोषित करी चाहिए और जीवन में सफलता के लिए इनका खुल कर उपयोग भी करना चाहिए।
इस बात के मर्म को देश के मूर्धन्य विद्वान नेता स्वर्गीय बाबू जगजीवन राम ने खूब समझा था। बहुत पहले अपनी पुत्री मीरा कुमार के चुनाव क्षेत्र बिजनौर में जब उन्होंने जाती आधार पर वोट की अपील की तो प्रेस ने उनसे पूछा ,सारा जीवन अपने जाति -वर्ण व्यवस्था के खिलाफ अपने को खड़ा रखा तो अब यह अपील क्यों ?तो सीधा और सरल सा उत्तर था उनका ,बोले मैं देर से सही पर समझ पाया हूँ कि देश में राजनीती जात से अलग हो कर नहीं हो सकती। 

गुरुवार, 8 मई 2014

मनुष्य होने उद्देश्य

                                       * वेद का निर्देश *                                              तन्तुतन्वन  रजसो    भनुमन्विहि ,ज्योतिष्मत पथो रक्षा धियो कृतान I अनुल्वन  वयत  जोगुवामयो , मनुर्भव जनया  दैव्यं  जनम I  --ऋग्वेद -१०/५३/                             
 भावार्थ --हे मनुष्य ! संसार के ताने -बाने को बुनता हुआ भी तू प्रकाश के पीछे चल I बुद्दि से परिष्कृत प्रकाशयुक्त  मार्गो की तू रक्षा कर I निरंतर  ज्ञान और कर्म के मार्ग पर चलता हुआ उलझन रहित कर्म का विस्तार कर तथा अपने पीछे दिव्य गुणयुक्त उत्तराधिकारी को जनम दे I इस प्रकार  तू मनुष्य बन l                                                                                                                                                                                                                                                                 

बुधवार, 7 मई 2014

ओट में दिया गया वोट

आपके हाथों मतदान केंद्र पर ओट में दिया गया वोट देश के राजनितिक परिदृश्य को बदल सकता है। इस वोट से आपका भाग्य  बदले या न बदले किन्तु चुनावी समर में जूझ रहे प्रत्यशियों का भाग्य जरूर तय हो जाता है। मतदान अधिक से अधिक हो यह जनरूचि ,आकांक्षा जनभागिता का परिचायक तो है ,किन्तु इससे सत्ता सञ्चालन के चरित्र में और पीड़ादायी हालात में कोई सुधार हो यह जरुरी नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की व्यवस्था में कोई जवाबदेही तय न होना है।अधिक या काम मतदान नेता या राजनितिक दल बदल सकता है ,सत्ता का चरित्र नहीं।   
लोकसभा और राज्यों की विधानसभा लोक आकाँक्षा के अनुरूप कानून तथा नीतियों के निर्धारण और उनका कार्यन्वयन उचित ढंग से कर सके इस निमित जन प्रतिनिधियों का चयन इस गोपनीय मतदान द्वारा किया जाता है। इसी गोपनीयता के लिए आपका वोट एक ओट में लिया जाता है। इसी ओट में मतदाता और प्रत्याशी के बीच एक दूसरे को छले जाने का खेल भी रचा जाता है।  लोग अधिक से अधिक संख्या में इस काम को अपना कर्तव्य मान पूर्ण जागरूकता और विचार के साथ अपने अधिकार का प्रयोग करे ,यह अपेक्षा की जाती है।  
व्यवहार में सभी व्यक्ति एकमत नहीं हो सकते। सभी स्पष्ट और जानकार वक्त नहीं होते। सभी सहिष्णु और दूसरों के प्रति आदर भाव रखने वाले नहीं होते। सभी सर्वहित चिंतन और लोकहितकारी कार्यो को करने वाले नहीं होते। सत्ता केन्द्रो में पलने वाले अनेक लोग जो उक्त श्रेणी में नहीं आते। जिनका मिज़ाज़ उत्तेजना ,आक्रोश ,स्वार्थपूर्ति ,दूसरे के धन ,यश ,प्रतिष्ठा और स्त्री को छल पूर्वक हरलेने  की जुगत में रहने वाले लोग इस मतदान व्यवस्था के बड़े दुश्मन हैं।  
समाज के ऐसे लोग बहुधा अपने या अपने वर्गीय हितो के लिए लोकतंत्र के इस मतदान  महायज्ञ को बाधित  और प्रभावित करते हैं। सच तो यह है कि " ओट में दिया गया वोट " सत्ता के लिए सघर्ष कर रहे व्यक्ति अथवा राजनितिक दलों के वोट प्रबंधन (जुगत ) कला का निरूपण मात्र है। मतदाता को चुनाव से ठीक कुछ समय पूर्व ,उसकी वास्तविक परेशानियों ,चिंताओं ,विरोध में आ रहे तर्कों और नज़रिये से कैसे विमुख किया जाए ? यह उसके चुनाव प्रबंधन कला की दक्षता पर निर्भर है। चुनावी परिदृश्य को प्रचारतंत्र के जरिये धुंधला -गदला बना कर मतदाता को विभ्रमित कर मतदान से विमुख कर देना भी इसी रणनीति का हिस्सा है। समाज का जो वर्ग शासन प्रबंधन और नीतियों की बारीकियों को समझता है ,चुनाव को प्रभावित कर सकता  है उसकी घेरा बंदी दूसरे उन समूहों की एकजुटता से कर दी जाती है जो धर्म ,जाति ,क्षेत्र ,भाषा ,बोली। ,शराब ,धन या फिर कोई और प्रलोभन के जरिये "ओट में वोट " डालने को उचित मानते हैं।  तब उस जागरूक वोट का औचित्य ही क्या रह जाता है ? जिसे अधिक से अधिक संख्या में ,मतदान को उसका अधिकार बता वोट के लिए प्रेरित किया जाता है। 
          
        
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शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

मनुष्य की कामना


The very purpose of our life is happiness, which is sustained by hope. We have no guarantee about the future, but we exist in the hope of something better. Hope means keeping going, thinking, ‘I can do this.’ It brings inner strength, self-confidence, the ability to do what you do honestly, truthfully and transparently.--his holiness Dalai Lama .

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

लोकतंत्र के अभिशप्त लोग


पार्टी के प्रत्याशी चयन में कांग्रेस पार्टी कार्यकर्ता की कोई भूमिका नहीं है। राहुल गांधी चाहते हैं कि प्रताशी का चयन ,उस क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के बीच रायशुमारी से हो। उस विचार की भ्रूण ह्त्या पार्टी के झंडाबरदारों ने ही कर दी। ऐसा होता रहेगा क्योंकि हम अभिशप्त हैं किसी परिवार से ,किसी व्यक्ति से ,किसी जाती से ,किसी धर्म से जुड़े रिश्तों  और भावनाओं की सड़ रही लाशों को ढोने के लिए। किसी क्षेत्र से किसी भी के चुने जाने के बाद वह आपके ,समाज और पार्टी के प्रति जवाबदेह नहीं रह जाता। वह एक ख़ास व्यक्ति बन जात है जिससे कोई सवाल नहीं कर सकता। किसी नगर पालिका -निगम के वार्ड से लेकर विधान सभा और लोकसभा तक के क्षेत्र से निर्वाचित कोई व्यक्ति उस परिसीमन पर ऐसे काबिज़ हो जाता है जैसे दादालाई ज़मीन या संपत्ति पर हम में से कोई। वह उस क्षेत्र में किसी का दखल बर्दास्त नहीं करता। किसी की राय नहीं सुनता। वह सीट उसकी पुश्तैनी हो जाती है। मिडिया ने उसे नाम दिया है " वह सीट परम्परा से " और हम इस परम्परा को ढ़ोने और इससे जुड़े रिश्तो को निभाने को हम भारतीय अभिशप्त हैं।
एक ताज़ा उदाहरण देखिये ,उत्तराखंड के एक दैनिक समाचार में प्रमुखता से शीर्षक छापा था " बारहवीं पंचायत से निकलेगें पांच नाम ?" इस शीर्षक में लगे सवालिया निशान से साफ़ है कि सशंय अखबार को भी है। इस खबर के बाद कई पंचायत हो चुकी किन्तु कोई नया निर्णय या नाम  सामने नहीं आया। आता भी कैसे ? सवाल परम्परा का है। अल्मोड़ा ,नैनीताल परम्परा से जिनकी हैं उन्हें मिली ,तो हरिद्वार और टिहरी भी उन्ही की है वही तय भी करेगें। इसमें पार्टी या पंचायत का दखल होना भी क्यों चाहिए ? पौड़ी के शूरमा सतपाल महाराज  रण छोड़ न भागते तो वह भी परम्परा से उन्ही के नाम तय थी।आखिर लोकतंत्र में चुनाव के नाम पर हम सिर्फ सदियों से चली आ रही सामंती (फ्यूडल )व्यवस्था की जड़ों को ही मज़बूत कर रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में विचार ,व्यक्ति विकास ,सुव्यवस्था ,समता के साथ सामान अवसर अभिव्यक्ति और पसंद का अधिकार गौण हो जाते हैं।