गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

लोकतंत्र के अभिशप्त लोग


पार्टी के प्रत्याशी चयन में कांग्रेस पार्टी कार्यकर्ता की कोई भूमिका नहीं है। राहुल गांधी चाहते हैं कि प्रताशी का चयन ,उस क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के बीच रायशुमारी से हो। उस विचार की भ्रूण ह्त्या पार्टी के झंडाबरदारों ने ही कर दी। ऐसा होता रहेगा क्योंकि हम अभिशप्त हैं किसी परिवार से ,किसी व्यक्ति से ,किसी जाती से ,किसी धर्म से जुड़े रिश्तों  और भावनाओं की सड़ रही लाशों को ढोने के लिए। किसी क्षेत्र से किसी भी के चुने जाने के बाद वह आपके ,समाज और पार्टी के प्रति जवाबदेह नहीं रह जाता। वह एक ख़ास व्यक्ति बन जात है जिससे कोई सवाल नहीं कर सकता। किसी नगर पालिका -निगम के वार्ड से लेकर विधान सभा और लोकसभा तक के क्षेत्र से निर्वाचित कोई व्यक्ति उस परिसीमन पर ऐसे काबिज़ हो जाता है जैसे दादालाई ज़मीन या संपत्ति पर हम में से कोई। वह उस क्षेत्र में किसी का दखल बर्दास्त नहीं करता। किसी की राय नहीं सुनता। वह सीट उसकी पुश्तैनी हो जाती है। मिडिया ने उसे नाम दिया है " वह सीट परम्परा से " और हम इस परम्परा को ढ़ोने और इससे जुड़े रिश्तो को निभाने को हम भारतीय अभिशप्त हैं।
एक ताज़ा उदाहरण देखिये ,उत्तराखंड के एक दैनिक समाचार में प्रमुखता से शीर्षक छापा था " बारहवीं पंचायत से निकलेगें पांच नाम ?" इस शीर्षक में लगे सवालिया निशान से साफ़ है कि सशंय अखबार को भी है। इस खबर के बाद कई पंचायत हो चुकी किन्तु कोई नया निर्णय या नाम  सामने नहीं आया। आता भी कैसे ? सवाल परम्परा का है। अल्मोड़ा ,नैनीताल परम्परा से जिनकी हैं उन्हें मिली ,तो हरिद्वार और टिहरी भी उन्ही की है वही तय भी करेगें। इसमें पार्टी या पंचायत का दखल होना भी क्यों चाहिए ? पौड़ी के शूरमा सतपाल महाराज  रण छोड़ न भागते तो वह भी परम्परा से उन्ही के नाम तय थी।आखिर लोकतंत्र में चुनाव के नाम पर हम सिर्फ सदियों से चली आ रही सामंती (फ्यूडल )व्यवस्था की जड़ों को ही मज़बूत कर रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में विचार ,व्यक्ति विकास ,सुव्यवस्था ,समता के साथ सामान अवसर अभिव्यक्ति और पसंद का अधिकार गौण हो जाते हैं। 


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