बुधवार, 29 जुलाई 2015

ईमानदार पिता का घर।

उत्तराखंड के फेसबुक पर पत्रकारों की संपत्ति जांच को लेकर पोस्ट पढने को मिल रही हैं। उस पर साथियों के कॉमेंट्स में बेईमानी और दलाली से ख़ड़ी की गई पूंजी तथा इमारतों पर जांच के इशारे किये जा रहे हैं। कॉमेंट्स के घेरे में नेता और अधिकारी भी शामिल हैं। अविश्वास और द्वेष की इस आग को बेईमानी से संचित धन और शौहरत का ईंधन मिलता है। और जो लोग सामाजिक मर्यादाओं का हनन कर इस काम को अंजाम देते हैं वें सभी लोग समाज के साझा शत्रु होते हैं। वैसे तो उन पर अंकुश लगाना और आवश्यक होने पर दण्डित करना शासन और सरकार का काम है। 
किन्तु ,लोकतंत्र में देखने में आया है कि  आये चारित्रिक विचलन ने ,और विकास के ऐश्वर्य  मॉडल ने लोगो की धन लिप्सा बढ़ा दी है। परिणाम सामने हैं। समाज में असंतोष और परस्पर विद्वेष बढ़ रहा है। सरकार सस्टेनेबल डवलपमेंट नहीं दे पा रही है। बाज़ार अनुत्पादक तरीके से अर्जित पूंजी के डैम पर छलांगे मारता दीखता है। ऐसे माहौल में तस्वीर का दूसरा पहलु उकेरती अतुल कुमार जैन की कविता एक घर के चित्र को कुछ यूँ भी कहती है --
बेमिसाल घर
उन दीवारों की दरारों के बीच
छत पर मेहनत के पसीने के सीलन थी
उसूलों का झड़ता सीमेंट था
ईमानदारी की खुरदुरी फर्श थी
सच का चरमराता दरवाज़ा था
तंगी से झूलता, आवाज़ करता पंखा था
ज़बान की जंग लगी अलमारी थी
इंसानियत के बोझ तले दबी, दो टूटी कुर्सियां थी
और फरेब से कभी न खुलने वाला बाहर का ताला था
हाँ, यही तो था, बरसों की कमाई से बनाया हुआ मेरे पिता का
बेमिसाल घर...
जो आज भी मेरे लिये
मंदिर है...
आपका
अतुल जैन
----------------पर दोस्तों! देखिये ईमानदारी से खड़ा किया गया ऐसा मंदिर सा घर भी लोगो की आँखों में शूल सा चुभते है। क्योकि यह पिता की मेहनत और ईमान की नींव पर खड़ा है। यही आज के लोगो को अखरता है क्यों यह अकेला ईमानदारी  का ढोल पीटता हमारे रस्ते में अड़ा है।-----सोचे आप ! कि ईमानदार क्यों रहा जाए  ?

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